मन को सुधारिए—वह जरूर सुधर जायेगा।

*मन को सुधारिए—वह जरूर सुधर जायेगा।*

*जीवन में सफलता और अभ्युदय पाने की लिये मनुष्य का परम कर्तव्य है कि वह अपने मन को सुसंस्कार युक्त बनाये। अपनी मनोगति को अधोमुखी न होने दे। ऊँचे मनोरथों एवं उदात्त भावनाओं से हृदय को परिपूर्ण रक्खे। मनुष्य का मन जितना विशाल एवं विस्तृत होगा उसका जीवन उतना ही महान और सफल होगा। मानसिक संकीर्णता ही मनुष्य के जीवन को संकुचित तथा असंतोषजनक बना देती है। मनुष्य जीवन का कर्ता-धरता उसका मन ही है। जैसा मन होगा-जीवन का निर्माण भी उसी प्रकार का होगा। मन को मनुष्य जीवन का साँचा ही समझना चाहिये और जीवन को मन का दर्पण। यह साँचा जितना ही सुन्दर, सुधर और पूर्ण होगा मनुष्य का जीवन भी उसमें ढलकर उतना ही सुन्दर, सुधर और पूर्ण बन जायेगा मन की अवस्थायें ही क्रिया रूप में मनुष्य जीवन में प्रतिबिंबित एवं परिलक्षित होती हैं।*

*सुख-शान्ति की उपलब्धि किन्हीं बाहरी साधनों तथा उपकरणों में नहीं होती। सुख-शान्ति का निवास मनुष्य की मानसिक वृत्तियों में ही होता है। जिसके हृदय की वृत्ति प्रसन्न है, प्रफुल्ल तथा प्रमोदमयी है उसे बात-बात में हर्ष और प्रसन्नता की ही उपलब्धि होगी। जिसका मन विषादि, प्रमादी और असंतुष्ट है उसे जलन-घुटन, असंतोष तथा कुँठाओं की विभीषिका में पड़ना होगा।*

*जिसने अपने मन का परिष्कार कर लिया है, उसे अपने वश में कर लिया है, उसको संसार में किसी भी सहायक की आवश्यकता नहीं रहती। स्वाधीन मन मनुष्य का सबसे बड़ा और सच्चा सहायक होता है। मन का परिमार्जन स्वयं ही एक बहुत बड़ा तप है।*

*सामान्यतः मनुष्यों को मन के वश में न रहने की शिकायत रहती है। मन के उच्छृंखल, प्रतिकूल तथा प्रतिगामी होने को वे एक स्वाभाविक वृत्ति मानते हैं। विविध साधनाओं, अनुष्ठानों और उपासनाओं के बावजूद भी जब वे मन को अनुकूल नहीं कर पाते तो हताश होकर यह विश्वास बना लेते हैं कि मनुष्य का मन बहुत प्रबल होता है उसको वश में कर लेना असम्भव नहीं तो दुरूह अवश्य है और कभी-कभी तो मन की प्रतिकूलता को भाग्य का दोष मानकर संतोष कर लेते हैं। यह कहकर बुराइयों एवं असफलताओं के प्रति आत्म-समर्पण कर देते हैं कि अच्छाइयाँ और असफलताएँ उनके भाग्य में ही नहीं हैं।*

*यह विचार ठीक नहीं। मन की विकृतियों के दोषी वास्तव में हम स्वयं ही होते हैं। मन की स्वाभाविक गति अधोगामिनी नहीं है। उसको गति हम स्वयं देते हैं। मनुष्य का प्रारम्भिक मन बड़ा ही भोला तथा निर्विकार होता है। उसमें किसी प्रकार की दुवृत्तियों का निवास नहीं होता। किसी बच्चे का मन कुटिल,कपटी,स्वार्थी अथवा लोभी कब होता है? वह तो एक भोले-भाले बटुक की तरह ही होता है। जब तक वह अबोध रहता है— अवयस्क रहता है— तब तक किसी प्रकार की विकृति उसमें नहीं आने पाती। बच्चे को यदि कोई बुरी बात बतलाता है तो वह सहम जाता है, डर जाता है, भाग जाता है अथवा क्षोभ से रोने लगता है। किसी अनौचित्य को ग्रहण करने को वह तैयार नहीं होता। भोले बच्चे कटुता, क्रूरता अथवा गन्दा वातावरण देखकर उससे दूर रहने का ही प्रयत्न करते हैं।*

*मनुष्य स्वयं भी जब कोई बुरी आदत ग्रहण करना शुरू करता है तब उसका मन उसका विरोध करता है, उसको स्वीकार करने में आना-कानी करता है। सिगरेट पीना सीखने वालों को शुरू में घोर अरुचि का सामना करना होता है। उन्हें चक्कर आता है, कै होती है, तबियत घबड़ाती है। यह हमारी अरुचिजन्य प्रतिक्रियाएं मन की ही हुआ करती हैं। बेचारा भोला मन अपनी शक्ति -भर बुराइयों का विरोध करता रहता है, किन्तु जब मनुष्य उसे वैसा करने को बार-बार विवश करता है तो आज्ञाकारी होने के कारण वह धीरे-धीरे उसे ग्रहण भी कर लेता है।*

*बुराइयों के प्रति इस प्रारम्भिक अरुचि एवं असहयोग से स्पष्ट प्रकट है कि मन की स्वाभाविक गति बुराइयों की ओर नहीं अच्छाइयों की ओर ही है। किन्तु जब उसके असहयोग की अवहेलना करके उसकी अरुचि की उपेक्षा करके उसे किसी विकृति को हठात् ग्रहण करने के लिये बलात्कार किया जाता है तब वह भी उसकी प्रतिक्रिया में विकृतियों की पराकाष्ठा कर देता है। अपने अधीनस्थ सेवक पर जब अनुचित अत्याचार किया जाता है, उसकी हर अच्छी बात और ईमानदारी का तिरस्कार किया जाता है, तो वह अवश्य ही विद्रोही हो जाता है और बलात्कार की प्रतिक्रिया से हुआ विद्रोही जल्दी हाथ नहीं आता और सृजन की ओर से मुड़कर ध्वंस की ओर ही दौड़ पड़ता है। ठीक यही बात मन की भी होती है।*

*मनुष्य का मन स्वभावतः प्रतिगामी नहीं होता है। उसे धक्के दे देकर स्वयं मनुष्य ही पतन-पथ पर चलाया करता है। पतन का पथ अधोगामी है, इसलिये उस पर ढकेला हुआ मन बड़े वेग से भागकर चलता है और तब उसका रोका जाना बड़ा कठिन हो जाता है।*

*बुराइयों का दोष मन के मत्थे मढ़ना ठीक नहीं। मनुष्य स्वयं इसका अपराधी होता है और इसी में उसका कल्याण है कि वह अपना दोष स्वीकार कर ले और उसका परिमार्जन करने का प्रयत्न करे। जिस मन को उसने बलात्कार पूर्वक अधोगामी बनाया है उसी प्रकार उसे प्रयत्नपूर्वक ऊपर लाने का प्रयत्न करे।*

*मन प्रतिक्रियावादी तो अवश्य होता है किन्तु हठवादी कदापि नहीं होता। जब वह अपने स्वभाव के विरुद्ध अरुचि होने पर भी मनुष्य के बुरे आदेश मान लेता है तब कोई कारण नहीं कि वह उदात्त आदेशों की अवहेलना करे। इतना अवश्य है कि विद्रोही बने हुये अथवा रूठे हुये मन को सुधारने एवं मनाने का नये सिरे से प्रबल प्रयत्न अवश्य करना होगा।*

*यदि आप अपना कल्याण चाहते हैं तो अपने रूठे मन को मनाइये। यदि एक-दो , दस-बीस बार में न माने तो हजार बार मनाइये जिस दिन आपका मन मानकर पुनः ठीक राह पर आ गया उसी दिन से आपकी जीवन उन्नति के सारे द्वार खुल जायेंगे। आज जो निकृष्ट एवं निम्न-कोटि की परिस्थितियाँ घेरे हुये हैं वे क्रमशः कल्याणकारी अवस्थाओं में बदल जायेंगी।*

*मन को मनाने का एक ही सहज तरीका है कि उसके सामने जीवन के आशापूर्ण चित्र रखिये कल्याणकारी संकेत से परिपूर्ण बनाइये। पुण्य, परमार्थ एवं परोपकार के विचारों में मन को मनाने की सबसे अधिक सामर्थ्य होती है। जो कुछ सोचिये, ऊँचा सोचिये, जो कुछ करिये, कल्याणकारी करिये, जो भी कल्पना, इच्छा अथवा मनोरथ करिये जनहित एवं आत्म-हित की दृष्टि से करिये।*

*पवित्र विचारों से मन पर वाँछित संस्कार पड़ते हैं, उसका परिमार्जन होता है और उसमें ऊर्ध्वगामी होने की रुचि पुनः उत्पन्न होती है। मन मनुष्य के मनोरथों को पूरा करने वाला सेवक होता है। मनुष्य जिस प्रकार की इच्छा करता है, मन तुरन्त उसके अनुकूल संचालित हो उठता है और उसी प्रकार की परिस्थितियाँ सृजन करने लगता है। मन आपका सबसे विश्वस्त मित्र और हितकारी बन्धु होता है।*

*यह सही है कि बुरे विचारों का त्याग श्रमसाध्य अवश्य है किन्तु असाध्य कदापि नहीं। विकृतियों के अनुपात में ही सत्प्रयासों की आवश्यकता है। विकृतियाँ जितनी पुरानी होंगी उतने ही शीघ्र एवं दृढ़ अभ्यास की आवश्यकता होगी। अभ्यास में लगे रहिये एक-दो साल ही नहीं जीवन के अन्तिम क्षण तक लगे रहिये। मानसिक विकृतियों से हार मान कर बैठ रहने वाला व्यक्ति जीवन में किसी प्रकार की सफलता प्राप्त नहीं कर सकता।*

*मन को परिमार्जित करने,उसे अपने अनुकूल बनाने में केवल विचार शक्ति ही नहीं अपनी कर्मशक्ति भी लगाइये। जिस कल्याणकारी विचार को बनाइये उसे क्रिया रूप में भी परिणित करिये। विचारों द्वारा संकेत पाया हुआ मन जब काम में नियोजित कर दिया जायेगा तो दोहरे प्रयत्न से शीघ्र ही वह आपकी अमोघ-शक्ति बनकर वाँछित सफलताओं को मूर्तिमान कर देगा।*

*अखण्ड  ज्योति  जनवरी  1966*

शुभ प्रभात। आज का दिन आपके लिए शुभ एवं मंगलमय हो।
Reactions

Post a Comment

0 Comments